वृद्धि और विकास में अंतर - अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत, अन्तर,अवस्था, जाने स्मपूर्ण जनकारी (Vriddhi Aur Vikas Me Antar) - शारीरिक शिक्षा

वृद्धि और विकास(Growth and Development): वृद्धि एवं विकास यह दोनो शब्द प्रायः बिना किसी भेदभाव के पयार्यवाची रूप में काम में लाये जाते हैं परन्तु यह सत्य है कि दोनों शब्द शरीर के विभिन्न विकास क्रमों को प्रकट करते हैं वृद्धि और विकास शब्दों का प्रयोग मोटे तौर पर किसी भी प्रकार से सीखने अथवा स्वतः उसके साथ आने वाले परिवर्तनों के लिये किया जाता है और इसीलिये यह आवश्यक रूप से वंशानुक्रम और वातावरण की सम्मिलित उपज कही जाती है।

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वृद्धि और विकास का अर्थ | Vriddhi aur Vikas ka Arth

वृद्धि और विकास में अंतर|Vriddhi aur Vikas mein antar.

विकास का अर्थ वातावरण के प्रभावों के कारण होने वाले परिवर्तन है जबकि वृद्धि का तात्पर्य शारीरिक शिक्षाओ अव्ययो तथा संस्थानों के वृद्धि को प्राप्त होना है तथा उनके आकार एवं परिणाम में परिवर्तन होना है। इससे बालक की कार्यक्षमता बढ़ती है और लम्बाई चौड़ाई तथा मोटाई आदि मे परिवर्तन होता है वास्तव मे विकास का अर्थ आकार का बढ़ना है उस बढ़ने में शरीर की लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई के साथ साथ शरीर के बाहरी अगं जैसे सिर, धड़, पैर, अतिरिक्त अगं हृदय और मस्तिष्क आदि का बढना भी सम्मिलित रहता है। दूसरे शब्दों में विकास शरीर तथा मन के सभी अग प्रत्यगो का सभी दिशाओ मे होने वाला परिवर्तन है जबकि वृद्धि किसी एक दिशा की ओर होने वाला परिवर्तन है ।

साधारणतया वृद्धि शब्द का प्रयोग तभी किया जाता है जब किसी व्यक्ति के लम्बा, छोटा, पतला और मोटा आदि होने की चर्चा करते है। मांसपेशियो का बढ़ना, हडिडयो का बढना, हाथ-पैर मस्तिष्क आदि का बढना वृद्धि शब्द की परिभाषा के अनुरूप है। शरीर व उसके अंगो के बढ़ने उसके भार व आकार के बढ़ने को अंका, इंचो, तोल के मापो द्वारा सिद्ध किया जा सकता है इसी को वृद्धि कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति का आकार जन्म से लेकर किसी विशेष आयु स्तर तक लगातार बढ़ता ही जाता है दूसरी ओर विकास शब्द परिणाम सम्बन्धी परिवर्तनों को व्यक्त ना कर ऐसे सभी परिवर्तनों के लिये प्रयुक्त होता है। जिससे व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक क्षमता एवं योग्यता मे जो उन्नति होती है। क्रियाओं प्रक्रियाओ और दैनिक अनुभवों के कारण शरीर और मन में जो गुणात्मक परिवर्तन जिनसे व्यक्ति की कार्य कुशलता की वृद्धि होती है विकास का ठोस रूप माना जाता है।

विकास शब्द अपने आप मे एक विस्तृत अर्थ रखता है वृद्धि इसका ही एक भाग है। यह व्यक्ति मे होने वाले सभी परिवर्तनों की ओर संकेत करता है। उदाहरण के तौर पर मासपेशियों का बढना अथवा उनका लम्बा होना वृद्धि कहलाता है परन्तु उनकी बनावट और उनके भौतिक अस्तित्व में जो रासायनिक परिवर्तन होते है उन्हे विकास की संज्ञा दी गयी है। विकास शब्द कार्यक्षमता कार्यकुशलता में आने वाले गुणात्मक परिवर्तनों को भी प्रकट करता है । इन परिवर्तनो को प्रत्यक्ष रूप से मापना कटिन ही है इन्हें केवल अप्रत्यक्ष तरीको जैसे व्यावहार करते समय व्यक्ति का निरीक्षण करना आदि से ही मापा जा सकता है बचपन में बच्चो की हड्डियाँ कितनी लचकदार और पतली होती है परन्तु कुछ समय पश्चात कालान्तर में वो ही हडिडयाँ ठोस और जानदार रूप धारण कर लेती है । जो कार्य 20 वर्ष एक युवा कर सकता है वह कार्य एक 5 वर्ष का शिशु नहीं कर सकता एक बालक में ना केवल बुद्धि ही अपितु विकास भी होता है।

वृद्धि और विकास की परिभाषाएं | Vriddhi aur Vikas ki paribhashaen.

जी०ए० हेडफील्ड के शब्दो मे "विकास रूप व आकार में परिवर्तन है तो वृद्धि आकार का बढ़ाना है।"

इंग्लिश एण्ड इंग्लिश के मतानुसार, "विकास शरीर व्यवस्था में एक लम्बे समय से होने वाले सतत परिवर्तन का एक अनुक्रम है। विशेषतः प्राणी में इस प्रकार परिवर्तन उसके जन्म से लेकर परिपक्व अवस्था तथा मृत्युपर्यन्त होते रहते है।"

पाल. एच. मुसैन का कथन है कि "विकास एक निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है जो गर्भावस्था से प्रारम्भ होकर परिपक्व अवस्था तक जारी रहती है।"

ई बी हरलॉक के अनुसार, "विकास प्रगतिशील परिवर्तनो का एक नियमित, क्रमिक तथा सुसम्बंध क्रम है जो कि परिपक्वता की प्राप्ति की ओर निर्देशित रहता है।"

वृद्धि और विकास में अंतर(Vriddhi aur Vikas mein antar)

वृद्धि और विकास मे सबसे बड़ा अन्तर यह भी है कि वृद्धि की किया आजीवन नहीं चलती। कहने का तात्पर्य किसी विशेष आयु सीमा के उपरान्त प्राणी मे वृद्धि नहीं होती व्यक्ति के परिपक्वता ग्रहण करने के साथ-साथ एक समय पर आकर रूक जाती है परन्तु विकास सतत् चलने वाली प्रक्रिया है यह जीवन के अन्तिम क्षणों तक चलती है योग्यता और क्षमता व्यक्ति किसी भी समय प्राप्त कर सकता है। कई प्रकार की नई आदतों तथा नये कौशल किसी भी जीवन स्तर पर सीखे जा सकते हैं अथवा विकसित हो सकते है बौद्धिक एवं मानसिक विकास भी नये अनुभवों नये ज्ञान और नयी परिस्थितियों के कारण होता है चाहे शरीर और मस्तिष्क की वृद्धि सीमा तक अपने उच्च शिखर को पहुँच चुकी हो।

वृद्धि के साथ-साथ सदैव विकास होना भी आवश्यक नहीं है मोटापे के कारण एक बालक के भार में वृद्धि हो सकती है परन्तु इस वृद्धि से उसकी कार्यक्षमता एवं कार्यकुशलता में कोई वृद्धि नही होती इस तरह से उसकी वृद्धि विकास को साथ लेकर नही चलती। दूसरी ओर विकास भी वृद्धि के बिना सम्भव हो सकता है कई बार देखा जाता है कि कुछ बच्चो की उँचाई आकार एवं भार में समय गुजरने के साथ-साथ कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखायी देता परन्तु उनकी कार्यक्षमता तथा शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक योग्यता मे बराबर प्रगति होती रहती है।

कुछ ऐसी कमियां जो वृद्धि और विकास के लिये सकंट के कारण माने जाते है। इनमें शारीरिक और मानसिक रोग थकान पौष्टिक आहार की कमी, जलवायु प्रदूषित वातावरण, आदि आते है। उपरोक्त के लिए शारीरिक शिक्षा के प्रशिक्षण का यह महत्वपूर्ण कर्तव्य बन जाता है कि वह छात्र-छात्राओं को इन संकटो से बचाये और जहाँ तक हों सकें शारीरिक प्रक्रियाओ का कार्यक्रम बनाये जिससे छात्रो का अधिक से अधिक वृद्धि और विकास हो सके।

वृद्धि एवं विकास के सिद्धांत (Principles of Growth and Development)

मानव की वृद्धि एवं विकास कुछ विशेष सिद्धांतों पर आधारित होती है। यह सिद्धांत निम्नलिखित है-

  1. निरन्तरता का सिद्धांत (Principle of Continuity) - मनुष्य का वृद्धि एवं विकास निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है। यह मां के गर्भ से मृत्युकाल तक रहती है। इसकी गति कभी ज्यादा तो कभी कम होती है।
  2. वृद्धि और विकास की गति असमान होना (Rate of Growth & development is not Uniform) - वैसे तो मनुष्य में वृद्धि और विकास निरन्तर होते रहता है, परन्तु इसकी चाल प्रत्येक अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होती है। शिशु अवस्था के शुरूआती समय में यह गति कुछ तीव्र होती है, परन्तु बाद के वर्षों में ये गति मंद पड़ जाती है। 
  3. व्यक्तिगत भिन्नताएं (Individual Difference) - मनुष्य की विकास और वृद्धि उसकी अपनी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप होती है। ये भिन्नताएं जुड़वा बच्चों में भी देखी जा सकती है। वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते है और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएं देखने को मिलती है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के विकास में व्यक्तिगत भिन्नताएं पायी जाती है।
  4. विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है (Development Proceeds fron General to specific) - बालक का विकास सासमान्य क्रियाओं से विशिष्टता की ओर बढ़ता है। उदाहरण के लिए शुरू में एक नवजात शिशु के रोने और चिल्लाने में उसके सभी अंग भाग लेते है बाद में उसकी वृद्धि और विकास की प्रक्रिया स्वरूप यह क्रियायें उसकी आंखों और उसके वाकतंत्र तक सीमित हो जाती है।
  5. एकीकरण (Integration) - बालक में विकास की प्रक्रिया पूर्ण रूप से एकीकरण के सिद्धांत को अपनाती है। इसके अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को फिर अन्य अंगों के भागों को चलाना सीखता है ।
  6. परस्पर सम्बन्ध (Inter Relation) बालक में वृद्धि एवं विकास की सभी दिशाएं जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक आदि एक - दूसरे सम्बन्धित होती है।

वृद्धि तथा विकास की अवस्थाएं | vriddhi aur Vikas ki avasthaen.

वृद्धि और विकास को अगर हम उसके अर्थ को समान मानते हुये प्रयुक्त करें तो बच्चे का सम्पूर्ण तथा सर्वांगीण विकास हमें निम्न रूपो तथा पहलूओ मे दिखाई देता है।

1. शारीरिक विकास (Physical Development) - व्यक्ति के शारीरिक विकास के अर्न्तगत बाहरी तथा आन्तरिक शरीर के हिस्सो का विकास शामिल होता है।

2. बौद्धिक विकास (Mental Development )- इसमे सभी प्रकार की बौद्धिक शक्तियाँ जैसे संवेदना, एकाग्रता, सृजनात्मकता, स्मरणशक्ति, कल्पनाशक्ति आदि से सम्बंधित शक्तियो का विकास सम्मिलित होता है।

3. संवेगात्मक विकास (Emotional Development ) - कई संवेगो की उत्पत्ति, उनका विकास तथा इन संवेगो के आधार पर संवेगात्मक व्यवहार का विकास सम्मिलित होता है।

4. सामाजिक विकास (Social Development)- इसके अर्न्तगत बच्चे में उचित सामाजिक गुणो का विकास कर समाज के मूल्यों एवं नियमो के अनुसार व्यवहार करना सिखाया जाता है।

5. नैतिक तथा चारित्रिक विकास (Moral And Character Development) - इसके अर्न्तगत व्यक्ति के अन्दर नैतिकताओं का विकास होता है।

वृद्धि जो वास्तव में प्रक्रिया की द्योतक है जीवन का क्रियात्मक रूप है। सभी जीवधारियो का भले ही उनका जीवनस्तर कुछ भी हो, परिवर्तन के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है लगभग सभी उच्च स्तरीय प्राणी जन्म के समय संरचनात्मक दृष्टि से सम्पूर्ण होते है। जन्म के पश्चात् उन्हें किसी नये अंग- उपांग की प्राप्ति नही होती। वृद्धि एक सृजनात्मक विद्या है- गर्भावस्था से ही व्यक्ति में व्यावहारिक तथा क्रियात्मक दृष्टि से कुछ न कुछ विकसित होता ही रहता है। वृद्धि की विद्या से ही नई गामक योग्याताएँ, प्रवृतियाँ, आवधारणाओ आदि का विकास होता है। व्यावहारिक विशेषताओ की दृष्टि से एक वर्ष तथा पाँच वर्ष के बालक में आकाश-पाताल का अन्तर होता है। वृद्धि के विभिन्न पक्षो की गति भिन्न-भिन्न होती है। वृद्धि के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, बौद्धिक तथा सामाजिक पक्षों में एक घनिष्टता, होने के अतिरिक्त भी इनकी गति एक दूसरे के तुलना मे भिन्न होती है।

वृद्धि और विकास का निष्कर्ष | vriddhi aur Vikas ka nishkarsh

सरल शब्दों में वृद्धि और विकास का निष्कर्ष कुछ इस प्रकार है। वृद्धि एक निश्चित समय तक चलने वाली प्रक्रिया है परंतु विकास जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।

FAQ

प्रश्न - वृद्धि और विकास में क्या अंतर है।
उत्तर वृद्धि एक निश्चित समय तक चलती है तथा विकास शतत चलने वाली प्रक्रिया है।
प्रश्न- बुद्धि और विकास की अवस्थाएं क्या है?
उत्तर वृद्धि और विकास की अवस्थाएं, संवेगात्मक अवस्थाएं, शारीरिक अवस्था, मानसिक अवस्था, चारित्रिक अवस्था, पर्यावरण अवस्था,अनुवांशिक अवस्था है।



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