कोहलबर्ग का सिद्धान्त लेख से जानेंगे नैतिक विकास एवं व्यवहार मूल। साथ ही जानेंगे कोहलबर्ग का सिद्धांत (Theory of Kohlberg) के विषय में पूर्ण जानकारी । चलिए जानते है कोहलबर्ग का सिद्धान्त के नैतिक विकास के बारे में।
कोहलबर्ग का सिद्धान्त (Theory of Kohlberg 1927-1987)
कोहलबर्ग के सिद्धान्त के अनुसार नैतिक चिन्तन जो नैतिक व्यवहार का मूल है, छः क्रमिक स्तरों में विकसित होता है। चूँकि इसका सम्बन्ध न्याय से जुड़ा है अतः यह व्यक्ति के साथ आजीवन जुड़ा रहता है। उन्होंने अपने विचार का आधार हिन्ज की संदेहास्पद किंकर्त्तव्यविमूढ़ता को बनाया है जिसमें हिन्ज कैंसर से पीड़ित अपनी पत्नी के लिए उसका जीवन बचाने के लिए एक वैज्ञानिक के यहाँ चोरी करता है क्योंकि वह वैज्ञानिक उससे दवा की दस गुनी कीमत माँगता है जिसके लिए हर स्रोत से धन इकट्ठा करके भी हिन्ज अत्यल्प दवा पाता है जो इलाज के लिए नाकाफी है। इससे दुःखी होकर हिन्ज अपनी दवा की चोरी से अपराध-बोध अनुभव तो करता है पर दूसरी ओर समाज के रक्त पिपासुओं के सामने असहाय होकर उठाए गए अपने कदमों को 'जीवन रक्षा' की दृष्टि से सही ठहराता है।
कोहलबर्ग के सिद्धान्त छः क्रमिक स्तर हैं-
- आज्ञापालन ।
- आत्म स्वार्थ ।
- सुनिश्चिततीकरण ।
- कानून व्यवस्था का भय ।
- मानवाधिकार ।
- लोक मानवीय नैतिकता का सन्दर्भ।
कोहलबर्ग सिद्धांत का संछिप्त परिचय
क्र. स. | विषय | विवरण |
1. | कोहलबर्ग | अमेरिकन मनोवैज्ञानिक |
2. | वर्ष | 1927-1987 |
3. | कोहलबर्ग की धारणा | छः |
4. | कोहलबर्ग की स्तर | तीन |
5. | कोहलबर्ग का सिद्धान्त | नैतिक विकास |
कोहलबर्ग की नैतिक तर्कणा की अवस्थाएँ
जब व्यक्तियों को नैतिक संघर्षो का सामना करना पड़ता है तब उनकी तार्किकता अधिक महत्त्वपूर्ण होती है न कि अंतिम निर्णय कोहलबर्ग ने धारणा बनाई कि व्यक्ति तीन स्तरों (छः अवस्थाएँ) से गुजरकर अपनी नैतिक तार्किकता की योग्यताओं को विकसित कर पाते हैं।
(i) पूर्व नैतिक स्तर (Level of Preconvention)- नैतिक तर्कणा के इस स्तर में वे नियम सम्मिलित होते हैं जिनका निर्माण दूसरों के द्वारा किया जाता है और पालन बालकों के द्वारा किया जाता है। इस स्तर की दो अवस्थाएं निम्न है-
प्रथम अवस्था सजा या आज्ञापालन की स्थिति का अभिविन्यास - इस अवस्था में भौतिक परिणाम निर्धारित करते हैं कि उनका कार्य उचित है या अनुचित ।
दूसरी अवस्था: कारण-सापेक्ष अभिविन्यास-किसी भी स्वयं की अवस्थाओं द्वारा तथा दूसरों की आवश्यकताओं के लिए क्या उचित है इसमें उचित और पारस्परिकता के तत्व विद्यमान रहते हैं।
(ii) लौकिक स्तर - इस स्तर पर बालक उन नियमों का पालन करते हैं जो उसकी स्वयं की आवश्यकताओं के साथ-साथ दूसरों की आवश्यकताओं में समन्वय स्थापित करते हों।
तीसरी अवस्था अच्छा लड़का / सुशील लड़की का अभिविन्यास- अच्छा व्यवहार यह है कि उससे दूसरा आनन्दित हो और उसे स्वीकृत भी करे। कोई स्वीकृति अच्छा बनकर ही प्राप्त की जा सकती है।
चतुर्थ अवस्था कानून तथा व्यवस्था अभिविन्यास- इससे अभिप्राय स्वयं के कर्त्तव्यों का पालन करना, प्राधिकरण के प्रति सम्मान की भावना को व्यक्त करना तथा स्वयं की रक्षा के लिए सामाजिक नियमों का पालन करने से है।
(iii) पश्चलौकिक स्तर- व्यक्ति अपने मूल्यों को उन नैतिक सिद्धान्तों के रूप में परिभाषित करते हैं जिनका पालन उनके द्वारा चयनित होता है।
पाँचवीं अवस्था सामाजिक संविदा अभिविन्यास-क्या उचित है इसका वर्णन दोनों व्यक्ति तथा अधिकार सम्पूर्ण समाज के द्वारा स्वीकृत मापदण्डों के रूप में किया जाता है। चतुर्थ अवस्था की तुलना में नियम ठोस नहीं होते। उनमें समाज की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन किए जा सकत हैं।
छठी अवस्था सार्वभौमिक नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त अभिविन्यास- क्या उचित है, इसका चुनाव स्वयं द्वारा चयनित नीतिशास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है। ये सिद्धान्त ठोस और नैतिक होते हैं न कि विशेष कोई नैतिक उपदेश ।
कोहलबर्ग के नैतिक विकास की धारणा बालकों के नैतिक संघर्ष की प्रतिक्रियाओं पर आधारित है। दूसरे शब्दों में नैतिक विकास की तीन अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
लौकिकेतर - जब बालक प्राधिकर की सजा से बचने के लिए आदेश का पालन करते हो।
लौकिक स्तर - जब बालक नैतिक निर्णय करते समय दूसरों की भावनाओं का भी ध्यान रखते हो।
लौकिकोत्तर - जब बालक अनुभव करते हैं नैतिक मूल्य स्वेच्छाचारी तथा प्रत्येक समाज से संबंधित होते हैं।
निष्कर्ष : आशा करते है की मेरे द्वारा कोहलबर्ग का सिद्धान्त (Theory of Kohlberg) दी गई जानकारी पसंद आयी होगी फिर भी कही कुछ समझ में न आया हो तो कृपया कमेंट कर जानकारी प्राप्त कर सकते है। तरयारी करने वालो छत्रो के किए यह लेख जरूर भेजे जिससे उनको भी कोहलबर्ग का सिद्धान्त (Theory of Kohlberg) जानकारी प्राप्त हो सके।